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स्वास्थ्य रक्षक सखा-Health Care Friend

Saturday 6 July 2013

आंसुओं से भयभीत मत होना

हम भी खो जाएंगे कल : जहां हम बैठे हैं, उस जमीन में नामालूम कितने लोगों की कब्र बन गई होगी। जिस रेत पर हम बैठे हैं, वह रेत नामालूम कितने लोगों की जिंदगी की राख का हिस्सा है। कितने लोग इस पृथ्वी पर रहे हैं और कितने लोग खो गए हैं! आज कौन सा उनका निशान है? कौन सा उनका ठिकाना है? उन्होंने क्या नहीं सोचा होगा, क्या नहीं किया होगा! कितने-कितने....मैं सुनता हूँ कि द्वारिका सात बार बनी और बिगड़ी। सात करोड़ बार बन-बिगड़ गई होगी। कुछ पता नहीं है। इतना अंतहीन है, विस्तार यह सब, इसमें सब रोज बनता है और बिगड़ जाता है। लेकिन कितने सपने देखे होंगे उन लोगों ने! कितनी इच्छाएं की होंगी कि ये बनाएं, ये बनाएं। सब राख और रेत हो गया, सब खो गया। हम भी खो जाएंगे कल। हमारे भी बड़े सपने हैं। हम भी क्या-क्या नहीं कर लेना चाहते हैं! लेकिन समय की रेत पर सब पुंछ जाता है। हवाएं आती हैं और सब बह जाता है।-ओशो

सेक्स और समाधि : यह अच्छा ही है कि तुम सेक्स से थक जाते हो, अब किसी डॉक्टर के पास कोई दवा लेने मत चले जाना। यह कुछ भी सहायता नहीं कर पाएगी...ज्यादा से ज्यादा यह तुम्हारी इतनी ही मदद कर सकती है कि अभी नहीं तो जरा और बाद में थकना शुरू हो जाओगे। अगर तुम वास्तव में ही सेक्स से थक चुके हो तो यह एक ऐसा अवसर बन सकता है कि तुम इसमें से बाहर छलॉंग लगा सको।

काम वासना में अपने आपको घसीटते चले जाने में क्या अर्थ है? इसमें से बाहर निकलो। और मैं तुम्हें इसका दमन करने के लिए नहीं कह रहा हूँ। यदि काम वासना में जाने की तुम्हारी इच्छा में बल हो और तुम सेक्स में नहीं जाओ तो यह दमन होगा, लेकिन जब तुम सेक्स से तंग आ चुके हो या थक चुके हो और इसकी व्यर्थता जान ली है, तब तुम सेक्स को दबाए बगैर इससे छुटकारा पा सकते हो और सेक्स का दमन किए बिना जब तुम इससे बाहर हो जाते हो तो इससे मुक्त हो जाते हो।

काम वासना से मुक्त होना एक बहुत बड़ा अनुभव है। काम से मुक्त होते ही तुम्हारी ऊर्जा ध्यान और समाधि की ओर प्रेरित हो जाती है।-आचार्य रजनीश ओशो

आंसुओं से भयभीत मत होना : आंसुओं से कभी भी भयभीत मत होना। तथाकथित सभ्यता ने तुम्हें आंसुओं से अत्यंत भयभीत कर दिया है। इसने तुम्हारे भीतर एक तरह का अपराध भाव पैदा कर दिया है। जब आंसू आते हैं तो तुम शर्मिंदा महसूस करते हो। तुम्हें लगता है कि लोग क्या सोचते होंगे? मैं पुरुष होकर रो रहा हूँ, यह कितना स्त्रैण और बचकाना लगता है। ऐसा नहीं होना चाहिये। तुम उन आंसुओं को रोक लेते हो और तुम उसकी हत्या कर देते हो जो तुम्हारे भीतर पनप रहा होता है। जो भी तुम्हारे पास है, आंसू उनमें सबसे अनूठी बात है, क्योंकि आंसू तुम्हारे अंतस के छलकने का परिणाम हैं। आंसू अनिवार्यत: दुख के ही द्योतक नहीं हैं; कई बार वे भावातिरेक से भी आते हैं, कई बार वे अपार शांति के कारण आते हैं, और कई बार वे आते हैं प्रेम व आनंद से। वास्तव में उनका दुख या सुख से कोई लेना-देना नहीं है। कुछ भी जो तुमारे हृदय को छू जाये, कुछ भी जो तुम्हें अपने में आविष्ट कर ले, कुछ भी जो अतिरेक में हो, जिसे तुम समाहित न कर सको, बहने लगता है, आंसुओं के रूप में। इन्हें अत्यंत अहोभाव से स्वीकार करो, इन्हें जीयो, उनका पोषण करो, इनका स्वागत करो, और आंसुओं से ही तुम जान पाओगे प्रार्थना करने की कला।-आचार्य रजनीश ओशो (सौजन्य से-ओशो न्यूज लेटर)

देश-द्रोही या मानव द्रोही : मैं कहूंगा कि भारत को पहला देश होना चाहिए जो राष्ट्रीयता छोड़ दे। यह अच्छा होगा कि कृष्ण, बुद्ध, महावीर, पतंजलि और गोरख का देश राष्ट्रीयता छोड़ दे और कहें कि हम अंतर्राष्ट्रीय भूमि है। भारत को तो संयुक्त राष्ट्र संघ की भूमि बन जाना चाहिए। कह देना चाहिए, यह पहला राष्ट्र है, जिसको हम संयुक्त राष्ट्र संघ को सौंपते है। सम्हालो। कोई तो शुरूआत करे----। और यह शुरूआत हो जाए तो युद्धों की कोई जरूरत नहीं है, ये युद्ध जारी रहेगें, जब तक सीमाएं रहेंगी। ये सीमाएं जानी चाहिए। तो ठीक ही कहते हो, कह सकते हो मुझे देश-द्रोही। इन अर्थों में कि मैं मानव-द्रोही नहीं हूँ। लेकिन तुम्हारे सब देश-प्रेमी मानव-द्रोही है। देश-प्रेम का अर्थ होता है-मानव-द्रोह। देश-प्रेम का अर्थ होता खण्डों में बांटो। तुमने देखा न जो आदमी प्रदेश को प्रेम करता है। वह देश का दुश्मन हो जाता है, और जो जिले को प्रेम करता है। वह प्रदेश का दुश्मन हो जाता है। और जो जिले को प्रेम करता है, वह प्रदेश का भी दुश्मन हो जाता है। मैं दुश्मन नहीं हूँ देश का, क्योंकि मेरी धारणा अंतर्राष्ट्रीय है। यह सारी पृथ्वी एक है। मैं बड़े के लिए छोटे को विसर्जित कर देना चाहता हूँ।-आचार्य रजनीश ओशो

भगवान नहीं भगवत्ता : भगवान पर जोर नहीं देता हूँ, भगवत्ता पर जोर देता हूँ। भगवत्ता का अर्थ हुआ, नहीं कोई पूजा करनी है, नहीं कोई प्रार्थना, नहीं किन्हीं मंदिरों में घड़ियाल बजाने है, न पूजा के थाल सजाने हैं, न अर्चना, न विधि-विधान, न यज्ञ-हवन, वरन अपने भीतर वह जो जीवन की सतत धारा है। उस धारा का अनुभव करना है, वह जो चेतना है, चैतन्य है। वह जो प्रकाश है स्वयं के भीतर, जो बोध की छिपी हुई दुनियां है, वह जो बोध का रहस्यमय संसार है, उसका साक्षात्कार करना है, उसके साक्षात्कार से जीवन सुगंध से भर जाता है। ऐसी सुगंध से जो फिर कभी चुकती नहीं। उस सुगंध का नाम भगवत्ता है। स्रोत-ओशो-‘‘परम रस का अनुभव’’

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