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स्वास्थ्य रक्षक सखा-Health Care Friend

Tuesday 25 February 2014

ज्ञान और अज्ञान

अज्ञान भोग है। ज्ञान त्याग है। त्याग क्रिया नहीं है। वह करना नहीं होता है। वह हो जाता है। वह ज्ञान का सहज परिणाम है। भोग भी यांत्रिक है। वह भी कोई करता नहीं है। वह अज्ञान की सहज परिणति है। फिर, त्याग के कठिन और कठोर होने की बात ही व्यर्थ है। एक तो वह क्रिया ही नहीं है। क्रियाएं ही कठिन और कठोर हो सकती हैं। वह तो परिणाम है। फिर उससे जो छूटता मालूम होता है, वह निर्मूल्य और जो पाया जाता है, वह अमूल्य होता है।-ओशो

Tuesday 4 February 2014

क्रोध और काम को कैसे जीते?

सम्यक-जागरण ही जीवन विजय

दोपहर तप गई है। पलाश के वृक्षों पर फूल अंगारों की तरह चमक रहे हैं। एक सुनसान रास्ते से गुजरता हूँ। बांसों का झुरमुट है और उनकी छाया भली लगती है। कोई परिचित चिड़िया गीत गाती है। उसके निमंत्रण को मान वहीं रुक जाता हूँ। एक व्यक्ति साथ है। पूछ रहे हैं, 'क्रोध को कैसे जीतें, काम को कैसे जीते?’ यह बात तो अब रोज-रोज पूछी जाती है। इसके पूछने में ही भूल है, यही उनसे कहता हूँ। समस्या जीतने की है ही नहीं। समस्या मात्र जानने की है। हम न क्रोध को जानते हैं और न काम को जानते हैं। यह अज्ञान ही हमारी पराजय है। जानना जीतना हो जाता है। क्रोध होता है, काम होता है, तब हम नहीं होते हैं। होश नहीं होता है, इसलिए हम नहीं होते हैं। इस मूर्च्छा में जो होता है, वह बिलकुल यांत्रिक है। मूर्च्छा टूटते ही पछतावा आता है, पर वह व्यर्थ है; क्योंकि जो पछता रहा है, वह काम के पकड़ते ही पुन: सो जाने को है। वह न सो पाए-अमूर्च्छा बनी रहे, जागृति, सम्यक-स्मृति बनी रहे, तो पाया जाता है कि न क्रोध है, न काम है। यांत्रिकता टूट जाती है और फिर किसी को जीतना नहीं पड़ता है। दुश्मन पाये ही नहीं जाते हैं। एक प्रतीक कथा से समझे। अंधेरे में कोई रस्सी सॉंप दिखती है। कुछ उसे देखकर भागते हैं, कुछ लड़ने की तैयारी करते हैं। दोनों ही भूल में हैं, क्योंकि दोनों ही उसे स्वीकार कर लेते हैं। कोई निकट जाता है और पाता है कि सॉंप है ही नहीं। उसे कुछ करना नहीं होता, केवल निकट भर जाना होता है। मनुष्य को अपने निकट भर जाना है। मनुष्य में जो भी है, सबसे उसे परिचित होना है। किसी से लड़ना नहीं है और मैं कहता हूँ कि बिना लड़े ही विजय घर आ जाती है। स्व-चित्त के प्रतीक सम्यक-जागरण ही जीवन विजय का सूत्र है। स्रोत : ओशो साहित्य।

Saturday 19 October 2013

सृजन कठिन है, विध्वंस आसान

भगवान नहीं-भगवत्ता : भगवान पर जोर नहीं देता हूं, भगवत्ता पर जोर देता हूं। भगवत्ता का अर्थ हुआ, नहीं कोई पूजा करनी है, नहीं कोई प्रार्थना, नहीं किन्हीं मंदिरों में घड़ियाल बजाने है, न पूजा के थाल सजाने है, न अर्चना, न विधि-विधान, यज्ञ-हवन, वरन अपने भीतर वह जो जीवन की सतत धारा है। उस धारा का अनुभव करना है, वह जो चेतना है, चैतन्य है। वह जो प्रकाश है स्वयं के भीतर, जो बोध की छिपी हुई दुनियां है, वह जो बोध का रहस्यमय संसार है, उसका साक्षात्कार करना है, उसके साक्षात्कार से जीवन सुगंध से भर जाता है। ऐसी सुगंध से जो फिर कभी चुकती नहीं। उस सुगंध का नाम भगवत्ता है। परम रस का अनुवभ-ओशो।

सत्य के मार्ग पर: ध्यान रहे असत्य के मार्ग पर, सफलता मिल जाए तो व्यर्थ है, असफलता भी मिले तो सार्थक है। सवाल मंजिल का नहीं, सवाल कहीं पहुंचने का नहीं, कुछ पाने का नहीं, दिशा का नहीं, आयाम का नहीं। कंकड़-पत्थर इकट्ठे भी कर लिए किसी ने, तो क्या पाया। और हीरों की तलाश में खो भी गए, तो भी बहुत कुछ पा लिया जाता है, उस खोने में भी, अंनत की यात्रा पर जो निकलता है, वे डूबने को भी उबरना समझते हैं।-ओशो

सृजन कठिन है, विध्वंस आसान : सृजन कठिन है, विध्वंस आसान है: इस दुनिया में जो लोग बना नहीं सकते, वे मिटाने में लग जाते है, जो कविता नहीं रच सकते, वे आलोचक हो जाते है। जो धर्म का अनुव नहीं कर सकते, वे नास्तिक हो जाते है। जो ईश्वर की खोज नहीं कर सकते, वे कहते हैं ईश्वर है ही नहीं। अंगूर खट्टे हैं, इनकार करना आसान है, स्वीकार करना कठिन। जो समर्पित नहीं हो सकते, वे कहते हैं-समर्पित होएं क्यों? मनुष्य की गरिमा उसके संकल्प में है, समर्पण में नहीं। जो समर्पित नहीं हो सकते, वे कहते है-कायर समर्पित होते हैं, बहादुर, वीर तो लड़ते हैं। ध्यान रखना, सृजन कठिन है, विध्वंस आसान है। जो माइकल एंजलो नहीं हो सकता। वह अडोल्फ हिटलर हो सकता है। जो कालिदास नहीं हो सकता, वह जौसेफ स्टैलिन हो सकता है। जो बानगाग नहीं हो सकता, वह माओत्से तुंग हो सकता है। विध्वंस आसान है।-ओशो।

Wednesday 9 October 2013

धर्म नहीं धार्मिकता

धर्म सिद्धांत नहीं है। धर्म फिर क्या है? धर्म ध्यान है, बोध है, बुद्धत्व है। इसलिए मैं धार्मिकता की बात नहीं करता हूँ। चूंकि धर्म को सिद्धांत समझा गया है। इसलिए ईसाई पैदा हो गए, हिंदू पैदा हो गए, मुसलमान पैदा हो गए। अगर धर्म की जगह धार्मिकता की बात फैले, तो फिर ये भेद अपने आप गिर जाएंगे। धार्मिकता कहीं हिंदू होती है, कि कहीं मुसलमान या कहीं ईसाई होती है। बल्कि धार्मिकता तो बस धार्मिकता होती है। स्वास्थ्य हिंदू होता है, कि स्वास्थ्य मुसलमान, कि स्वास्थ्य ईसाई। प्रेम जैन होता है, प्रेम बौद्ध होता है, कि प्रेम सिक्ख होता है। जीवन, अस्तित्व इन संकीर्ण धारणाओं से नहीं बंधता। जीवन अस्तित्व इन संकीर्ण धारणाओं का अतिक्रमण करता है। उनके पार जाता है।-ओशो

Tuesday 20 August 2013

देह तुम्हारा मंदिर है।

देह का सम्मान करो-मैं चाहता हूं कि तुम इस सत्य को ठीक-ठीक अपने अंतस्तल की गहराई में उतार लो। देह का सम्मान करे, अपमान न करना। देह को गर्हित न कहना, निंदा न करना। देह तुम्हारा मंदिर है। मंदिर के भीतर देवता भी विराजमान है। मगर मंदिर के बिना देवता भी अधूरा होगा। दोनों साथ है, दोनों समवेत, एक स्वर में आबद्ध, एक लय में लीन। यह अपूर्व आनंद का अवसर है। इस अवसर को तूम खँड़ सत्यों में तोड़ो।-ओशो।

नमस्कार का अदभुत ढ़ंग, इस देश ने नमस्कार का एक अदभुत ढंग निकाला। दुनिया मैं वैसा कहीं भी नहीं है। इसे देश ने कुछ दान दिया है, मनुष्य की चेतना को, अपूर्व। यह देश अकेला है, जब दो व्यक्ति नमस्कार करते है, तो दो काम करते है। एक तो दोनों हाथ जोड़ते है। दो हाथ जोड़ने का मतलब होता है, दो नहीं एक। दो हाथ दुई के प्रतीक है, द्वैत के प्रतीक है। उन दोनों को हाथ जोड़ने का मतलब होता है, दो नहीं एक है। उस एक का ही स्मरण दिलाने के लिए। दोनों हाथों को जोड़कर नमस्कार करते है। और, दोनों को जोड़कर जो शब्द उपयोग करते है। वह परमात्मा का स्मरण होता है। कहते है-राम-राम, जयराम, या कुछ भी, लेकिन वह परमात्मा का नाम होता है। दो को जोड़ा कि परमात्मा का नाम उठा। दुई गई कि परमात्मा आया। दो हाथ जुड़े और एक हुए कि फिर बचा क्या-हे राम।-ओशो

लोग व्यर्थ की चीजें बचाने में जीवन गंवा देते हैं और जीवन का असली मालिक मर ही जाता है, उसे बचा ही नहीं पाते।-ओशो

प्रेम को जानने का उपाय पत्थर को सुंदर मूर्ति में निर्मित कर लेना, प्रेम को जानने का एक उपाय है। साधारण शब्दों को जोड़ कर एक गीत रच लेना, प्रेम को जानने का एक उपाय है। नाचना, कि सितार बजाना, कि बांसुरी पर एक तान छेड़ना, ये सब प्रेम के ही रूप है।-ओशो
स्त्रोत : प्रेसपालिका (पाक्षिक) जयपुर, राजस्थान, से साभार!

Saturday 6 July 2013

आंसुओं से भयभीत मत होना

हम भी खो जाएंगे कल : जहां हम बैठे हैं, उस जमीन में नामालूम कितने लोगों की कब्र बन गई होगी। जिस रेत पर हम बैठे हैं, वह रेत नामालूम कितने लोगों की जिंदगी की राख का हिस्सा है। कितने लोग इस पृथ्वी पर रहे हैं और कितने लोग खो गए हैं! आज कौन सा उनका निशान है? कौन सा उनका ठिकाना है? उन्होंने क्या नहीं सोचा होगा, क्या नहीं किया होगा! कितने-कितने....मैं सुनता हूँ कि द्वारिका सात बार बनी और बिगड़ी। सात करोड़ बार बन-बिगड़ गई होगी। कुछ पता नहीं है। इतना अंतहीन है, विस्तार यह सब, इसमें सब रोज बनता है और बिगड़ जाता है। लेकिन कितने सपने देखे होंगे उन लोगों ने! कितनी इच्छाएं की होंगी कि ये बनाएं, ये बनाएं। सब राख और रेत हो गया, सब खो गया। हम भी खो जाएंगे कल। हमारे भी बड़े सपने हैं। हम भी क्या-क्या नहीं कर लेना चाहते हैं! लेकिन समय की रेत पर सब पुंछ जाता है। हवाएं आती हैं और सब बह जाता है।-ओशो

सेक्स और समाधि : यह अच्छा ही है कि तुम सेक्स से थक जाते हो, अब किसी डॉक्टर के पास कोई दवा लेने मत चले जाना। यह कुछ भी सहायता नहीं कर पाएगी...ज्यादा से ज्यादा यह तुम्हारी इतनी ही मदद कर सकती है कि अभी नहीं तो जरा और बाद में थकना शुरू हो जाओगे। अगर तुम वास्तव में ही सेक्स से थक चुके हो तो यह एक ऐसा अवसर बन सकता है कि तुम इसमें से बाहर छलॉंग लगा सको।

काम वासना में अपने आपको घसीटते चले जाने में क्या अर्थ है? इसमें से बाहर निकलो। और मैं तुम्हें इसका दमन करने के लिए नहीं कह रहा हूँ। यदि काम वासना में जाने की तुम्हारी इच्छा में बल हो और तुम सेक्स में नहीं जाओ तो यह दमन होगा, लेकिन जब तुम सेक्स से तंग आ चुके हो या थक चुके हो और इसकी व्यर्थता जान ली है, तब तुम सेक्स को दबाए बगैर इससे छुटकारा पा सकते हो और सेक्स का दमन किए बिना जब तुम इससे बाहर हो जाते हो तो इससे मुक्त हो जाते हो।

काम वासना से मुक्त होना एक बहुत बड़ा अनुभव है। काम से मुक्त होते ही तुम्हारी ऊर्जा ध्यान और समाधि की ओर प्रेरित हो जाती है।-आचार्य रजनीश ओशो

आंसुओं से भयभीत मत होना : आंसुओं से कभी भी भयभीत मत होना। तथाकथित सभ्यता ने तुम्हें आंसुओं से अत्यंत भयभीत कर दिया है। इसने तुम्हारे भीतर एक तरह का अपराध भाव पैदा कर दिया है। जब आंसू आते हैं तो तुम शर्मिंदा महसूस करते हो। तुम्हें लगता है कि लोग क्या सोचते होंगे? मैं पुरुष होकर रो रहा हूँ, यह कितना स्त्रैण और बचकाना लगता है। ऐसा नहीं होना चाहिये। तुम उन आंसुओं को रोक लेते हो और तुम उसकी हत्या कर देते हो जो तुम्हारे भीतर पनप रहा होता है। जो भी तुम्हारे पास है, आंसू उनमें सबसे अनूठी बात है, क्योंकि आंसू तुम्हारे अंतस के छलकने का परिणाम हैं। आंसू अनिवार्यत: दुख के ही द्योतक नहीं हैं; कई बार वे भावातिरेक से भी आते हैं, कई बार वे अपार शांति के कारण आते हैं, और कई बार वे आते हैं प्रेम व आनंद से। वास्तव में उनका दुख या सुख से कोई लेना-देना नहीं है। कुछ भी जो तुमारे हृदय को छू जाये, कुछ भी जो तुम्हें अपने में आविष्ट कर ले, कुछ भी जो अतिरेक में हो, जिसे तुम समाहित न कर सको, बहने लगता है, आंसुओं के रूप में। इन्हें अत्यंत अहोभाव से स्वीकार करो, इन्हें जीयो, उनका पोषण करो, इनका स्वागत करो, और आंसुओं से ही तुम जान पाओगे प्रार्थना करने की कला।-आचार्य रजनीश ओशो (सौजन्य से-ओशो न्यूज लेटर)

देश-द्रोही या मानव द्रोही : मैं कहूंगा कि भारत को पहला देश होना चाहिए जो राष्ट्रीयता छोड़ दे। यह अच्छा होगा कि कृष्ण, बुद्ध, महावीर, पतंजलि और गोरख का देश राष्ट्रीयता छोड़ दे और कहें कि हम अंतर्राष्ट्रीय भूमि है। भारत को तो संयुक्त राष्ट्र संघ की भूमि बन जाना चाहिए। कह देना चाहिए, यह पहला राष्ट्र है, जिसको हम संयुक्त राष्ट्र संघ को सौंपते है। सम्हालो। कोई तो शुरूआत करे----। और यह शुरूआत हो जाए तो युद्धों की कोई जरूरत नहीं है, ये युद्ध जारी रहेगें, जब तक सीमाएं रहेंगी। ये सीमाएं जानी चाहिए। तो ठीक ही कहते हो, कह सकते हो मुझे देश-द्रोही। इन अर्थों में कि मैं मानव-द्रोही नहीं हूँ। लेकिन तुम्हारे सब देश-प्रेमी मानव-द्रोही है। देश-प्रेम का अर्थ होता है-मानव-द्रोह। देश-प्रेम का अर्थ होता खण्डों में बांटो। तुमने देखा न जो आदमी प्रदेश को प्रेम करता है। वह देश का दुश्मन हो जाता है, और जो जिले को प्रेम करता है। वह प्रदेश का दुश्मन हो जाता है। और जो जिले को प्रेम करता है, वह प्रदेश का भी दुश्मन हो जाता है। मैं दुश्मन नहीं हूँ देश का, क्योंकि मेरी धारणा अंतर्राष्ट्रीय है। यह सारी पृथ्वी एक है। मैं बड़े के लिए छोटे को विसर्जित कर देना चाहता हूँ।-आचार्य रजनीश ओशो

भगवान नहीं भगवत्ता : भगवान पर जोर नहीं देता हूँ, भगवत्ता पर जोर देता हूँ। भगवत्ता का अर्थ हुआ, नहीं कोई पूजा करनी है, नहीं कोई प्रार्थना, नहीं किन्हीं मंदिरों में घड़ियाल बजाने है, न पूजा के थाल सजाने हैं, न अर्चना, न विधि-विधान, न यज्ञ-हवन, वरन अपने भीतर वह जो जीवन की सतत धारा है। उस धारा का अनुभव करना है, वह जो चेतना है, चैतन्य है। वह जो प्रकाश है स्वयं के भीतर, जो बोध की छिपी हुई दुनियां है, वह जो बोध का रहस्यमय संसार है, उसका साक्षात्कार करना है, उसके साक्षात्कार से जीवन सुगंध से भर जाता है। ऐसी सुगंध से जो फिर कभी चुकती नहीं। उस सुगंध का नाम भगवत्ता है। स्रोत-ओशो-‘‘परम रस का अनुभव’’

Wednesday 26 June 2013

बाहर की जिंदगी खेल से ज्यादा नहीं है।

बाहर की जिंदगी का बहुत अंतिम अर्थ नहीं है। बाहर की जिंदगी खेल से ज्यादा नहीं है। हां, ठीक से खेल लें, इतना काफी है। क्योंकि ठीक से खेलना भीतर ले जाने में सहयोगी बनता है।-ओशो

बाहर से जाग जाना बहुत आसान है, लेकिन भीतर की झूठी धार्मिक दिशा से जागना बहुत कठिन है।-ओशो

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