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स्वास्थ्य रक्षक सखा-Health Care Friend

Friday 31 May 2013

धर्म का रास्ता ऐसे ही है जैसे आकाश में पक्षी उड़ते हैं।

जो आदमी भीड़ के पीछे चलता है वह आदमी झूठे धर्म के रास्ते पर चलेगा। जो आदमी अकेला चलने की हिम्मत जुटाता है वह आदमी धर्म के रास्ते पर जा सकता है।-आचार्य ओशो।

कुछ थोड़े से लोग कभी भीड़ से चूक जाते हैं और उस रास्ते पर चले जाते हैं जो धर्म का रास्ता है। और ध्यान रहे, भीड़ कभी धर्म के रास्ते पर नहीं जाती। धर्म के रास्ते पर अकेले लोग जाते हैं। क्योंकि धर्म के रास्ते पर कोई राजपथ नहीं है, जिस पर करोड़ों लोग इकट्ठे चल सकें। धर्म का रास्ता पगडंडी की तरह है, जिस पर अकेला आदमी चलता है। दो आदमी भी साथ नहीं चल सकते। और यह भी ध्यान रहे, धर्म का रास्ता कुछ रेडीमेड, बना- बनाया नहीं है, कि पहले से तैयार है, आप जाएंगे और चल पड़ेंगे। धर्म का रास्ता ऐसे ही है जैसे आकाश में पक्षी उड़ते हैं। कोई रास्ता नहीं है बना हुआ, पक्षी उड़ता है और रास्ता बनता है, जितना उड़ता है उतना रास्ता बनता है। और ऐसा भी नहीं है कि एक पक्षी उड़े तो रास्ता बन जाए, तो दूसरा उसके पीछे उड़ जाए। फिर रास्ता मिट जाता है। उड़ा पक्षी, आगे बढ़ गया, आकाश में कोई निशान नहीं बनते।-आचार्य रजनीश ओशो।

Monday 20 May 2013

पंडे, पुजारी, साधु और सन्यासी! मई-II, 2013

धर्म के रास्ते : एक झूठे धर्म का रास्ता है, एक सच्चे धर्म का रास्ता है। सच्चे धर्म के रास्ते पर आदमी चला जाए तो उसका शोषण नहीं किया जा सकता। उसे झूठे धर्म के रास्ते पर ले जाओ, तो पंडे हैं, पुरोहित हैं, पुजारी हैं, मौलवी हैं, वे सब उसका शोषण कर सकते हैं।-ओशो

जो भी बनता है, मिटता है, वह ईश्‍वर नहीं है।-ओशो

पंडे, पुजारी, साधु और सन्यासी : आदमी को भटकाने वाले लोग उतने नास्तिक नहीं हैं, जितने कि पंडे हैं, पुजारी हैं, साधु हैं, सन्यासी हैं। जो शोषण करते हैं धर्म का। जो धर्म के नाम पर जीते हैं। जिन्होंने धर्म को आजीविका बना रखा है। जिन्होंने धर्म को धंधा बना रखा है। जो लोग भगवान को भी बेचते हैं और भगवान के बेचने पर जीते हैं। उन लोगों ने एक झूठा, एक सब्स्टीटयूट रिलीजन, एक परिपूरक धर्म बना रखा है। इसके पहले कि कोई आदमी भीतर जाए, वे उस झूठे रास्ते पर उसे लगा देते हैं। उस रास्ते पर करोड़ों-करोड़ों लोग चल रहे हैं-हिंदुओं के नाम से, मुसलमानों के नाम से, ईसाइयों के नाम से। और वे करोड़ों-करोड़ों लोग कहीं भी नहीं पहुंचते। बाहर भी कहीं नहीं पहुंचता आदमी और भीतर भी गलत रास्ते को पकड़ कर कहीं भी नहीं पहुंचता।-ओशो

भगवान : भगवान की कोई मूर्ति नहीं है और भगवान का कोई मंदिर नहीं है। और या फिर सभी मूर्तियां भगवान की हैं और सब कुछ भगवान का मंदिर है।

धर्म वह है जिससे हम बनते हैं और जिसमें हम लीन होते हैं। हम धर्म को नहीं बना सकते।-ओशो

Friday 3 May 2013

प्रार्थना भी भय का विस्तार....! मई-I, 2013

मनुष्य के जीवन को क्या हो गया है? यह मनुष्य की इतनी अशांति और दुख की दशा क्यों है? कहीं ऐसा तो नहीं है कि मनुष्य जो होने को पैदा हुआ है, वही नहीं हो पाता है, जो पाने को पैदा हुआ है, वही नहीं उपलब्ध कर पाता है, इसीलिए मनुष्य इतना दुखी है? अगर कोई बीज वृक्ष न बन पाए तो दुखी होगा। अगर कोई सरिता सागर से न मिल पाए तो दुखी होगी। कहीं ऐसा तो नहीं है कि मनुष्य जो वृक्ष बनने को है, वह नहीं बन पाता है और जिस सागर से मिलने के लिए मनुष्य की आत्मा बेचैन है, उस सागर से भी नहीं मिल पाती है, इसीलिए मनुष्य दुख में हो? धर्म मनुष्य को उस वृक्ष बनाने की कला का नाम है।-ओशो

अधार्मिक होना और दुखी होना, एक ही बात को कहने के दो ढंग हैं। इसलिए कोई कभी कल्पना न करे कि अधार्मिक होते हुए भी कोई व्यक्ति कभी आनंदित हो सकता है। यह असंभव है। जैसे शरीर की बीमारियां हैं, और शरीर से बीमार आदमी कैसे आनंदित हो सकता है? शरीर तो स्वस्थ चाहिए। वैसे ही आत्मा की बीमारियां भी हैं। अधर्म आत्मा की बीमारी का नाम है। जो आत्मा की बीमारी में पड़ा हुआ है वह कैसे आनंदित हो सकता है? शरीर दुखी हो तो भी एक आदमी भीतर आनंदित हो सकता है। लेकिन भीतर की आत्मा ही दुखी हो तब तो आनंदित होने की कोई उम्मीद नहीं है, कोई आशा नहीं है। लेकिन जिस आत्मा को आनंदित करना है, उस आत्मा के लिए हम कुछ भी नहीं करते, शरीर के लिए सब कुछ करते हैं।-ओशो

सत्य होगा तो एक ही होगा। लेकिन एक सत्य के नाम पर जब तीन सौ संप्रदाय खड़े हो जाते हैं, तो सत्य की खोज करनी भी मुश्किल हो जाती है। हिंदू हैं, मुसलमान हैं, ईसाई हैं, जैन हैं-और धार्मिक आदमी कहीं भी नहीं है। धार्मिक आदमी नहीं है, इसलिए इतनी बेचैनी है, इतनी अशांति है, इतना दुख है।-ओशो

रात सोते वक्त खयाल रखना। जैसे मंदिर में दंडवत कर रहे हो, ऐसे बिस्तर पर सो जाना। उसी दंडवत के भाव में नींद लग जाऐ। सुबह उठना, तो परिक्रमा का भाव और जो भी करना, उसे उसकी ही सेवा समझना।-ओशो

सत्य एक क्षण में दिखाई पड़ सकता है। बस एक ही शर्त है कि उस क्षण तुम सोचो मत। जरा सा विचार और वर्तुल शुरू हो जाता है। तुम दूर निकलना शुरू हो गए। तुम बड़ी दूर पहुँच गए। जरा सा सो बड़ी दूर ले जाता है। जरा सा अ-सोच तत्क्षण तुम्हें स्वयं से मिला देता है।-ओशो

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